Thursday, February 16, 2012

हमारी तरक्की, उनकी झुंझलाहट



हमारी तरक्की, उनकी झुंझलाहट
- अमरीश कुमार त्रिवेदी
 
ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका के बाद अब ब्रिटेन में भी नस्लीय भावना खतरनाक रूप लेती जा रही है। खासतौर से भारतीयों के खिलाफ। ब्रिटेन की श्वेत आबादी में अश्वेतों के खिलाफ नस्लीय भावना और हिंसा की प्रवृत्ति तो बढ़ ही रही है। ब्रिटिश सरकार के फैसलों में भी नस्लीय असर दिखना शुरू हो गया है। कैमरून सरकार ने कठोर आव्रजन नीति के जरिए गैर-यूरोपीय मुल्कों खासतौर से एशिया के बाशिंदों के लिए नो इंट्री का बोर्ड लगा दिया है। प्रस्तावित नीति के तहत 31,000 पाउंड से कम कमाई वाला गैर-यूरोपीय नागरिक ब्रिटेन की नागरिकता हासिल नहीं कर सकता। सालाना तनख्वाह का यह मानक 49,000 पाउंड तक बढ़ाया जा सकता है। यह तुगलकी कानून न केवल बाहर से ब्रिटेन आने वाले गैर-यूरोपीय नागरिकों पर चोट है, बल्कि इसमें ब्रिटेन के अंदर से भी एशियाई नागरिकों की बेदखली का भी इंतजाम है। दरअसल, आव्रजन नीति के आर्थिक मानकों के तहत ब्रिटेन की आधी आबादी आ जाएगी। इसमें करीबन दो तिहाई नागरिक एशियाई होंगे। यानी ब्रिटेन में रह रहे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के युवा अपने मूल देश या बाहर के किसी देश की लड़की से विवाह नहींकर पाएंगे। अपने मां-बाप को साथ नहींला पाएंगे, क्योंकि उनकी तनख्वाह मानक से कम है। ब्रिटिश सरकार के इस फैसले पर पश्चिमी मीडिया में कोई हलचल नहीं देखी गई, लेकिन भारत सरकार ब्रिटेन के इस नस्लीय हमले को यों ही हजम कर गई। कोई लाख तर्क दे, लेकिन यह विशुद्ध नस्लीय हमला ही है, जो अश्वेत नागरिकों को आतंकवादी, अपराधी और अराजकतावादी होने के संदेह से परखता है। दम तोड़ती अर्थव्यवस्था और सिकुड़ते रोजगार ने ब्रिटेनवासियों में इस नस्लीय भावना को मजबूत किया है। अब वहां की कंजरवेटिव सरकार इसे कानूनी जामा पहना रही है। उनका भौड़ा तर्क है कि राष्ट्र हित सर्वोपरि है और जनांकाक्षाओं को पूरा करना उनकी जिम्मेदारी है। यह फैसला मानवाधिकारों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन और पूंजीवादी देश का गरीबों पर उपहास है। आपको याद होगा कि पिछले साल लंदन में दंगा हुआ, सैकड़ों श्वेत नागरिक खासकर युवा शॉपिंग मॉल और प्रतिष्ठानों से सामान लूटते दिखाए गए। दंगाइयों ने भारतीय प्रतिष्ठानों, घरों को भी निशाना बनाया। पिछले दिनों एक भारतीय छात्र अनुज बिदवे की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसके कुछ दिन बाद एमबीए की पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्र प्रवीण रेड्डी पर हमला हुआ। ये घटनाएं साबित करती हैं कि ब्रिटेन में नस्लीय भावना तेजी से उभर रही है और ब्रिटिश सरकार की आक्रामक नीति इसे हवा दे रही है। ब्रिटेन की श्वेत आबादी का मानना है कि वहां की बढ़ती आबादी, सामाजिक सुरक्षा के बढ़ते बोझ के जिम्मेदार एशियाई नागरिक ही हैं। ये उनके रोजगार छीन रहे हैं, जबकि अपनी प्रतिभा और विशिष्टता के बलबूते भारतीयों ने वहां सफलता के झंडे गाड़े हैं। सवाल उठता है कि ब्रिटिश सरकार का यह फैसला नस्लीय भावना से प्रेरित नहींहै तो सारे बाहरी मुल्कों पर आव्रजन नीति लागू क्यों नहीं की गई। यूरोपीय संघ की नाफरमानी के लिए बदनाम ब्रिटेन ने दूसरे यूरोपीय मुल्कों को नई आव्रजन नीति के दायरे में रखना उचित क्यों नहींसमझा। दरअसल, उसे अन्य यूरोपीय मुल्कों की प्रतिक्रिया का डर था। लेकिन भारत, चीन और अन्य एशियाई देशों को वह दब्बू समझता है। भारत से लड़ाकू विमानों की बिक्री का ठेका न मिल पाने से ब्रिटिश प्रधानमंत्री और वहां के राजनेताओं ने जो हेकड़ी दिखाई, वह सब बयां करती है। उन्होंने तो भारत को ब्रिटिश मदद बंद करने तक की धौंस दे दी। अच्छी बात यह है कि भारत की तरफ से उन्हें करारा जवाब मिला। साम्राज्यवादी मानसिकता उन पर हावी है। नीतिगत मामला हो या बाजार, पश्चिमी मुल्कों को पराजय नहींपचती। आखिर यह मजाक नहीं तो क्या है कि ब्रिटिश कंपनी में कार्यरत भारतीय या कोई अन्य गैर यूरोपीय नागरिक अपने बीवी-बच्चों को वहां साथ नहीं रख सकता, अगर उसकी सैलरी 31,000 पाउंड से कम है। अगर तनख्वाह मानक से ऊपर हो तब भी कर्मचारी की पत्नी या पति को अंग्रेजी दक्षता परीक्षा पास करनी होगी। अगर भारत भी ऐसे प्रतिक्रियावादी फैसले लागू कर दे तो कितने ब्रिटिश हिंदी की परीक्षा में पास होंगे। वास्तव में अगर कैमरून सरकार अपने इरादों में कामयाब रही तो ब्रिटेन के बहुलवादी समाज का तानाबाना छिन्न-भिन्न हो जाएगा। ब्रिटेन में एशियाई मूल के छोटे व्यवसायियों पर इसका दूरगामी असर पड़ेगा। ऐसे में जरूरी है कि भारत समेत एशियाई देश इस पर न सिर्फ अपनी आपत्ति जताएं, बल्कि सख्त कदम उठाने के इरादे भी जाहिर करें।

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